भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काँट से बा भरल हर डगर ई मगर / विन्ध्यवासिनी दत्त त्रिपाठी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काँट से बा भरल हर डगर ई मगर
फूल के आसरे जिन्दगी चल रहल
आज बंधन बहुत बा
सहज प्यार पर
जिन्दगी दाँव पर
पाँव अंगार पर
आस बिसवास केहू करो का भला
आदमी के स्वयं आदमी छल रहल
साध पूरा कहाँ मन के
हमरा भइल
फूल खिलला से पहिले ही
मुरझा गइल
का पता कब किनारा मिली ना मिली
जिन्दगी त अभी धार में पल रहल
जीत के ना खुशी
हार के बा ना गम
बढ़ रहल जात बा
आज बेसुध कदम
चल रहल बा बहुत झोक से अब हवा
नेह के ले सहारा दिआ जल रहल
काँट से बा भरल हर डगर ई मगर
फूल के आसरे जिन्दगी चल रहल