भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कांच का दरकना / असंगघोष
Kavita Kosh से
जब
दरकता है काँच
तो
सबको पता चलता है
कि
दरका है
काँच
कुछ टूटा है
छनाक से
जिन्हें दिखता है
वे देखते भी हैं
जो नहीं देख पाते
महसूसते होंगे
शायद!
काँच का दरकना
दरकने की पीड़ा
जो खुद कभी दरका हो
काँच की तरह
दरकने का
दर्द भी जानता होगा
इस दर्द को देखते
महसूसते सब हैं
पर कोई
यह क्यों नहीं पूछता
आखिर काँच!
दरका क्यों?