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कागला पटकै चांच / ओम पुरोहित ‘कागद’
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कागला खावै भुआंळी
मल्टीस्टोरी कोठ्यां माथै
डब्बा बंद आं घरां सूं
कोई नीं झांकै आभै में
कागलो पटकै चांच
सातवैं मालै री
पाणी आळी टंकी माथै
दिखूं तो दिखूं कियां
कोई प्रीतम प्यारी नै
देऊं तो देऊं कियां
बटाऊआं रो संदेस
ना मंढाओ चावै
सोनै में चांच
ना जीमाओ चावै
घी-खांड रो चूरमो
पण दिखो तो सरी
थे तो भूलग्या
म्हैं तो निभाऊं
म्हारो धरम!