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काग़ज़ की नाव / राजेन्द्र वर्मा
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बाढ़ अभावों की आयी है
डूबी गली-गली,
दम साधे हम देख रहे
काग़ज़ की नाव चली ।
माँझी के हाथों में है
पतवार आँकड़ों की
है मस्तूल उधर ही
इंगिति जिधर धाकड़ों की
लंगर जैसे जमे हुए हैं
नामी बाहुबली ।
आँखों में उमड़े-घुमड़े हैं
चिन्ता के बादल
कोरों पर सागर लहराया
भीगा है आँचल
अपनेपन का दंश झेलती
क़िस्मत करमजली ।
असमंजस में पड़े हुए हम
जीवित शव जैसे
मत्स्य-न्याय के चलते
साँसें चलें भला कैसे ?
नौकायन करने वालों की
है अदला-बदली ।।