भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काठ की हांडी / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चढ़ती नहीं दुबारा कभी काठ की हांडी

एक बार में उसका सब-कुछ हो जाता है,

चमक बढ़ाती और कड़ा रखती है मांडी

कपड़े में जब पानी उसको धो जाता है


तब असलियत दिखाई देती है, अधिया की

खेती और पुआर की अगिन आँखों को ही

भरमाती है, धोखाधड़ी, अनर्थ-क्रिया की

होती हैं पचास पर्तें । मैं इसका मोही


कभी नहीं था, यहाँ आदमी हरदम नंगा

दिखलाई देता है, चोरी-सीनाज़ोरी

साथ-साथ मिलती है, निष्कलंकता गंगा

उठा-उठा कर दिखलाती जिह्वा झकझोरी


आस्था जीवन में विश्वास बढ़ाता है जो

वही बटाई में जाता है खंड-खंड हो ।