भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कादम्बरी / पृष्ठ 144 / दामोदर झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

19.
कोमल तृण ओ तूर राखि लघु नीड़ बनओलनि
बड़ नेहे हारीत तरुक कोटरमे रखलनि।
देथि मधुर फल आनि पानि राखथि चुकड़ीमे
कौखन पायस राखि जाथि पातक टुकड़ीमे॥

20.
धीरे धीरे बढ़लहुँ हम सूगा बनि गेलहुँ
नभ-मण्डल विचरण करबाक निपुणता पयलहुँ।
अपनहिसँ उड़ि जाइ विपिनमे फल खा आबी
साँझे प्रविशि अपन कोटरमे गृह सुख पाबी॥

21.
बीतय राति महाश्वेता केर सुमिरन करिते
नीनक अवसर थोड़ सतत नयनहिं जल ढरिते।
मनमे आबय थोड़बो समय आर जँ जिवितहुँ
आइलि छली महाश्वेता झट हृदय लगबितहुँ॥

22.
पुनि वैशम्पायन भय हम हुनका लग चल गेलहुँ
पुण्डरीक छी हमही से कनिजो नहि कहलहुँ।
नहि तँ हमरा ओना कठोर शाप नहि दगितथि
तुरत तपस्या छोड़ि दौड़ि गरदनिमे लगितथि॥

23.
किन्तु ताही छन एते ज्ञान हमरो तँ नहि छल
केवल नेही थिकी हमर से हृदय कहै छल।
अस्तु आब की करब फेर हुनके लग जायब
शुक देहुँसँ आश्रम लग रहि समय बितायब॥