भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कानाबाती कूउउ / बालकृष्ण गर्ग

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सरदी में थर-थर,
गरमी में लू-लू।
तुम करते हा-हा,
हम करते हू-हू।
मीठा-मीठा गप,
कड़वा-कड़वा थू,
नाकाबाती छींउउ,
कानाबाती कूउउ!
[धर्मयुग, 19 अक्तूबर 1975]