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काबुलीवाला–2 / वीरेन डंगवाल

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एक बादल जो दरअसल एक नम दाढ़ी था
एक बारिश जो थी मेरा टपकता हुआ घर
एक ख्‍वाब
ऐसा ऊभ-चूभ कि चूता था
भौंहों तक से आंसू सरीखा
एक तलब
इतनी हसीन अपनी बेताबी में

एक फरेब
जानबूझकर कौर की तरह जिसे मुंह में डालते
दिल चूर-चूर हुआ
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