कामगार / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
चल देते हैं
काम की तलाश में
चौराहे पर,
हर कस्बे, हर कॉलोनी मंे
हर शहर में
मिल जायेंगे ऐसे चौक
बहुत जल्दी ही
अपनी रोटियाँ खुद ही पकाकर
टिफिन या अखबार में जमाकर
पहुँच जाते हैं कामगार
राजमिस्त्री, मजदूर, सफेदीवाले
डब्बे, ब्रुश, औजार लिए
जैसे ही पहुँचती है कोई कार, कोई स्कूटर
बगैर पूछताछ के लपकने लगते हैं
मिल जाये बस आज काम
मालिक बूढ़ों, जवानों को तौलता है
हिसाब लगाता है
कौर कर पायेगा ज्यादा-से-ज्यादा काम
देने भी पड़ंे कम-से-कम दाम
किसको नहीं मिला है
कई दिनों से काम
छाँटता है सबसे ज्यादा ताकतवर
सबसे ज्यादा मजबूर
चले जाते हें कुछ लदकर
अपने-आपको सराहते हुए
लौट पड़ते हैं बचे हुए
अपने भाग्य को गलियाते हुए
फिर एक बीड़ी जलेगी
फिर एक चाय का कप सुड़का जायेगा
काम मिल जायेगा तो ठीक
वर्ना घर को लुढ़का जायेगा
फिर होगी सुबह
फिर एक नया संघर्ष
भूख को हराने का
अपने बाजुबल पर
दुनिया को उठाने का
इसी जिजीविषा से तो
धरा भी घूम रही है
मनुष्य का भाल चूम रही है।