कामना / अंजू शर्मा
हमारे रिश्ते के बीच
ऊब में डूबते तमाम पुल
टूट जाने से पहले
खो जाना चाहती हूँ मंझधार में,
शायद
कभी कभी डूबना,
पार लगने से कहीं ज्यादा
पुरसुकून होता है,
बेपरवाह गुजरने की ख्वाहिश
ऊँगली थामे है
उन सभी पुरखतर रास्तों पर
जहाँ लगे होते हैं साईनबोर्ड निषेध के,
जंग खाए परों को तौलकर
भर लेना चाहती हूँ एक दुस्साहसी उड़ान
आसमान के अंतिम छोर तक
हंसकर, झटकते हुए सर को,
ठीक वैसे ही
जैसे गुरुत्वाकर्षण को मुंह चिढाते हैं
हीलियम से भरे गुब्बारे,
यूँ जानती हूँ कि
हर भटकते कदम के इर्द गिर्द
लम्बवत पड़ी होती हैं आचार-सहितायें
ये भी कि
हर मनभावन रास्ता नहीं जाता है
तयशुदा मंजिल को
ये भी कि हर तयशुदा रास्ते के
इर्द-गिर्द नहीं उगते हैं
जंगली कामनाओं के पेड
किन्तु टूटकर प्यार करने
और दीवानावार हो
मजनू हो जाने वाली
तमाम आदिम इच्छाओं के बोझिल पाँव
कभी कभी झटकना चाहते हैं
संकोच और जन्मजात संस्कार की बेड़ियाँ,
ताउम्र नाक की सीध में चलते
हर सतर राजपथ से ऊबकर
उम्र की इस दोपहर में
बो देना चाहती हूँ हम दोनों के बीच
सालों पहले जिए अजनबीपन और रोमांच के बीज,
कुछ देर फिर से उसी हाथ को थामकर
भूल जाना चाहती हूँ हर रास्ता,
हटा लेना चाहती हूँ नज़रें तयशुदा मंजिल से,
दौड़ना चाहती हूँ बेसाख्ता पथरीले रास्तों पर
शाम के धुंधलके में खोने से ठीक पहले
आज मैं प्यार में पागल होना चाहती हूँ