भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कामयाबी के भरोसे गिन रहा हूँ / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
Kavita Kosh से
कामयाबी के भरोसे गिन रहा हूँ
आसमाँ के सब सितारे गिन रहा हूँ
पावं से अपने मसल कर फ़ूल को अब
घाव तलवों के मैं ,अपने गिन रहा हूँ
वो गवाही देगा मेरे पक्ष में ही
और भी अहसाँ हैं उसके गिन रहा हूँ
फ़ासला है दरमियाँ में बेरुखी का
मैं तुम्हारे सब इशारे गिन रहा हूँ
भीड़ में "आज़र" कहाँ गुम हो गए हो
लौटने के दिन तुम्हारे गिन रहा हूँ