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काम वतन के आ न सके जो वह जीवन भी क्या जीवन है / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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काम वतन के आ न सके जो वह जीवन भी क्या जीवन है
करके कुछ दिखला न सके जो वह जीवन भी क्या जीवन है

ख़ुशियों के मादक वसन्त में हर मन की कोयल गाती है
गीत दुखों में गा न सके जो वह जीवन भी क्या जीवन है

अपनी मस्ती में तो सारी दुनिया मस्त रहा करती है
दुखियों को दुलरा न सके जो वह जीवन भी क्या जीवन है

बैर भाव की जला होलिका, सुखद स्नेह के सुमन खिलाकर
स्वर्ग धरा पर ला न सके जो वह जीवन भी क्या जीवन है

रोध-विरोधों से टकरा कर हाथ मिलाकर संघर्षो से
अपनी टेक निभा न सके जो वह जीवन भी क्या जीवन है

घोर निराशा की रजनी जब कुंठित करने लगे मनोबल
आशा-दीप जला न सके जो वह जीवन भी क्या जीवन है

असफलता से हार मान कर अरमानों का गला घोंट दे
बिगड़ी बात बना न सके जो वह जीवन भी क्या जीवन है