किस तरह बदलता रहता है संसार,
और किस तरह बदलता रहा हूँ मैं स्वयं!
मुझे मात्र एक नाम से जानती है दुनिया
पर वास्तव में जिस नाम से जाना जाता है मुझे
वह मैं एक नहीं, एक साथ अनेक हूँ और ज़िंदा हूँ।
ख़ून जम जाए इससे पहले ही
मैं एक से अधिक बार मरता आया हूँ।
पता नहीं अपने शरीर से कितने शवों को
मैं अलग कर चुका हूँ।
यदि दृष्टि प्राप्त हो जाती मेरे विवेक को
क़ब्रों के बीच मेरे विवेक को दिखाई दे जाता मैं
गहराई में लेटा हुआ,
वह मुझ स्वयं को दिखाता
समुद्री लहरों के ऊपर झूलता हुआ,
अदृश्य देशों की ओर उड़ती मेरी राख दिखाता
राख जो मुझे कभी बहुत प्रिय रही थी।
मैं आज भी ज़िंदा हूँ
और अधिक पवित्रता, और अधिक पूर्णता से
अपने आलिंगन में ले रही आत्मा
अद्भुत जीव-जंतुओं की भीड़ को।
जीवित है प्रकृति, जीवित है पत्थरों के बीच
अन्न और सूखी पत्तियों के भंडार।
जोड़ में जोड़, रूप में रूप।
अपनी संपूर्ण वास्तुकला में संसार
जैसे बजता हुआ ऑर्गन, बिगुलों का समुद्र और पियानो
जो न ख़ुशियों में मरता है न तूफ़ानों में।
और जो मैं था वह संभव है पुनः
उग आए, समृद्ध कर दे वनस्पति-जगत को।
उलझे हुए, गुंथे हुए धागे के गोले को
खोलने की जैसी कोशिश्ा करते हुए
हमें अचानक दिखाई दे वह
अमर्त्यता का नाम दिया जा सकता है जिसे,
ओ, हमारे अंधविश्वास!