कालजयी / बीज सर्ग / भाग २ / भवानीप्रसाद मिश्र
तो उस प्रवाह का नाम सुनो
जो हमको तुमको
भारत को इतना गरिमामय
बना गया,
त्योहार देश में
देशान्तर में
जो ममता का मना गया ।
वह है अशोक
सम्राट, मौर्य कुल भूषण
प्रस्थापित प्रवीर;
थी शोभित
पाटलिपुत्र राजधानी जिसकी
सुर-सरित-तीर ।
ईर्ष्या-सागर के मन्थन से
संजात सदा सत्ता का मद,
सुख चाहे जितना रहे
नहीं संतोष दृप्त को होता है
जब तक न प्राप्त करले
वह पद
ऐसा कोई-
जो सबकी छाती में
भय की ज्वाला भरदे,
जो आस पास की
प्रकृति और जनता को
उसकी गर्वोन्नत
ग्रीवा में गिरकर
एक विनत माला कर दे !
थे बिंदुसार के चार पुत्र
लगभग समान वय, बुद्धि, तेज
जो स्वाभिमान के लिए
कभी भी चढ़ सकते थे मृत्यु-सेज ।
थे मगधराज भयभीत
कि वे जब जायेंगे,
तो ये चारों अपनी-अपनी पर आयेंगे
कारण रण का तब
सिंहासन बन जायेगा
तब एक महाभारत फिर से
इस धरती पर ठन जायेगा ।
है मगध राज्य की सीमायें
लगभग असीम
यदि मैं घोषित कर दूँ
अधिकारी है सुसीम
तो भी
निष्कंटक राज्य न चलने पायेगा,
यह राज्य-दीप
निर्वात न चलने पायेगा ।
कुछ नहीं
राजगुरु-परामर्श के बिना
किंतु करते थे वे,
मन में आयी हर द्विविधा को
गुरु के आगे धरते थे वे ।
तब पूछा, "पुत्रों में सुयोग्यतम
प्रभो, कौन ?"
पिंगल आजीवक
समझ गए आशय
क्षण भर वे रहे मौन
फिर बोले, राजन !
उत्तर कल दूँगा,
कुमार आयें
बैठ सब एक साथ
अपना वाहन
अपना आसन
अपना भोजन
परिवेश प्राप्त ।"
सब आये
जब आकर बैठ
अपनी सबकी शोभा विशेष,
तब प्रश्न किया फिर राजा ने
गुरु रहे सोचते लव-निमेष ।
अनुमान हो गया
कौन किस तरह आया है,
वे समझ गए
’हर एक दृष्टि से
मँझला पुत्र सवाया है
मँझला अर्थात अशोक
चुना था वाहन राजा का हाथी ,
लाया था
माता के हाथों का बना खाद्य
वह बैठा था दूर्वा-दल पर
स्वीकारा स्वर्णासन के बदले
आसन जिसने मूल, आद्य
निर्लिप्त
भूमि पर बैठा था
था भोज्य पात्र में माटी के ,
है यह कुमार
हर भाँति योग्य
राजर्षि-योग परिपाटी के ।