भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कालान्तर / फ़्रेडरिक होल्डरलिन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कैशोर्य के उन दिनों में मैं
सुबह की ख़ुशियों से भर जाता था,
पर शामों में रुदन ही रुदन था ;
अब, जबकि मैं बूढ़ा हूँ
हर दिन उगता है
शंकाओं से आच्छन्न, तो भी
इसकी सन्ध्याएँ पावन हैं,
शान्त और प्रसन्न ।