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काला राक्षस-17 / तुषार धवल

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तुमने काली अंगुलियों से गिरह खोल दी

काली रातों में

उगती है पीड़ा

उगती है आस्था भी

जुड़वाँ बहनों सी

तुम्हारे चाहे बगैर भी


घर्र-घर्र घूमता है पहिया


कितना भी कुछ कर लो

आकांक्षाओं में बचा हुआ रह ही जाता है

आदमी।

उसी की आँखों में मैंने देखा है सपना।

तुम्हारी प्रति सृष्टि को रोक रही आस्था

साँसों की

हमने भी जीवन के बेताल पाल रखे हैं


काले राक्षस


सब बदला ज़रूर है

तुम्हारे नक्शे से लेकिन हम फितरतन भटक ही जाते हैं

तुम्हारी सोच में हमने मिला दिया

अपना अपना डार्विन

हमने थोड़ा सुकरात थोड़ा बुद्ध थोड़ा मार्क्स फ्रायड न्यूटन आइन्स्टीन

और ढेर सारा मोहनदास बचा रखा था

तुम्हारी आँखों से चूक गया सब

जीवन का नया दर्शनशास्त्र

तुम नहीं

मेरी पीढियाँ तय करेंगी

अपनी नज़र से


यह द्वंद्व ध्वंस और सृजन का।