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कालिख जो कोई मन की हटाने का नहीं है / गिरिराज शरण अग्रवाल
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कालिख जो कोई मन की हटाने का नहीं है
कुछ फ़ायदा बाहर के उजाले का नहीं है
गर डोर यह टूटी तो बिखर जाएँगे मोती
मनकों का तुम्हें ध्यान है, धागे का नहीं है
करनी हैं बहुत होश की बातें अभी तुमसे
यह वक़्त अभी पी के बहकने का नहीं है
दिल हारने वालों को ही दरकार है काँधा
वैसे तो कोई अर्थ सहारे का नहीं है
मैं दीप इरादों के जलाता हूँ लहू से
अब मन में मेरे ख़ौफ़ अँधेरे का नहीं है