सूरज
फिर तपा है
चमका है
धरा का कण-कण
कालीबंगा के थेहड़ में
नहीं ढूँढता छाँह
तपती धूप में
न कोई आता है
न कोई जाता है
है ही नहीं कोई
जो तानता
धूप में छाता
वो देखो
चला गया
पूरब से पश्चिम
थेहड़ को लांघता
सूरज।
राजस्थानी से अनुवाद : मदन गोपाल लढ़ा