भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काली आग / हरभजन सिंह / गगन गिल
Kavita Kosh से
यह काली आग का दरिया
मेरे घर आ बैठा है
ले आया है अपने साथ बहाकर
चटखे हुए पर्वत की फाँकें
कतरे हुए सूरज की कतरनें
काली पुरानी मिट्टी का
आग के जंगल में से गुज़रा एक काफ़िला
जलता सुलगता
चीख़ता चिंघाड़ता
बैठ गया है मेरी दहलीज़ों पर आकर ।
पंजाबी से अनुवाद : गगन गिल