काल-चक्र का गीत / शिव मोहन सिंह
कल को आज बनाना होगा,
या फिर एक बहाना होगा ।
काल-चक्र का गीत गगन को,
गाकर आज सुनाना होगा॥
अभी-अभी जो पल बीता है,
भरा-भरा सागर रीता है,
विद्यमान है ठोस तरल में,
घूँट-घूँट भर मन पीता है।
धूप-छाँव में वर्तमान को
जी कर व्यथा बताना होगा।
काल-चक्र का गीत गगन को,
गाकर आज सुनाना होगा ॥
अश्रु गिरा तो माटी माटी
स्वेद-सना माथे का चंदन ,
जीवट वाले का इस जग में
डगर-डगर होता अभिनंदन,
अपनी पारी खेल तेज को
पार क्षितिज के जाना होगा।
काल-चक्र का गीत गगन को,
गाकर आज सुनाना होगा ॥
कुंठित मन का एक मनोरथ
बीज ब्यथा का बो जाता है।
उत्सव का उल्लास काल के
कोलाहल में खो जाता है।
पल-पल पल की पावनता का
पावन पर्व मनाना होगा ।
काल चक्र का गीत गगन को
गाकर आज सुनाना होगा ॥
कुछ हाथों से छूट गये हैं ,
और अभी कुछ आनेवाले ।
कालखंड के निर्मोही कल
सदियों से भरमाने वाले ।
वर्तमान के काल-धर्म को
हँस कर आज निभाना होगा।
काल-चक्र का गीत गगन को
गाकर आज सुनाना होगा॥
पुश्तैनी घर खाली-खाली
दालानों में मौन दरारें।
आँगन गलियाँ पस्त पड़े हैं
जर्जर होती नम दीवारें ।
आज उन्हें भी झाड़ पोंछ कर
वंदनवार सजाना होगा।
काल चक्र का गीत गगन को
गाकर आज सुनाना होगा॥