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काल / विजेन्द्र

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जीवन का- यह भरा ताल है
अभा से- उद्दीप्त भाल है।
सीने के बल
चढ़ा चढ़ा मैं
आगे नहीं
निरा ढाल है।
परख-परख
मैं कितना देखूँ
खेटा सिक्का
खरा माल है।
ताजा नहीं
डाल के टूटे
खरबूजों का लगा पाल है
रंगों में
सब रंग चुने
मेरा अपना
रंग लाल हैं।
सूखी नदिया, सूखे तरूवर
आँक मिटाता
चला काल है।