काशी में महामारी / तुलसीदास/ पृष्ठ 6
विविध-2
( छंद 179, 180, 181)
(179)
मारग मारि, महीसुर मारि, कुमारग कोटिककै धन लीयो।
संकरकोपसों पापको दाम परिच्छित जाहिगो जारि कै हीयो।।
कासीमें कंटक जेते भये ते गे पाइ अघाइ कै आपनो कीयो।
आजु कि कालि परों कि नरों जड जाहिंगे चटि दिवारीको दीयो।।
(180)
कुंकुम -रंग सुअंग जितो, मुखचंदसों चंदसों होड़ परी है।
बोलत बोल समृद्धि चुवै, अवलोकत सोच -बिषाद हरी है।।
गौरी कि गंग बिहंगिनिबेष, कि मंजुल मूरति मोदभरी है।
पेखि सप्रेम पयान समै सब सोच-बिमोचन छेमकरी है।।
(181)
मंगल की रासि, परमारथ की खानि जानि
बिरचि बनाई बिधि, केसव बसाई है।
प्रलयहूँ काल राखी सूलपानि सूलपर,
मीचुबस नीच सोऊ चाहत खसाई है।ं
छाडि छितिपाल जो परीछित भए कृपाल,
भलो कियो खलको , निकाई सो नसाई है।।
पाहि हनुमान! करूनानिधान राम पाहि!
कासी-कामधेनु कलि कुहत कसाई है।।