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काश, हम पगडंडियाँ होते / कुमार रवींद्र
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यों न होते
काश !
हम पगडंडियाँ होते
इधर जंगल-उधर जंगल
बीच में हम साँस लेते
नदी जब होती अकेली
उसे भी हम साथ लेते
कभी उसकी
देह छूते
कभी अपने पाँव धोते
कोई परबतिया
इधर से जब गुज़रती
घुँघरुओं की झनक
भीतर तक उतरती
हम उसी
झनकार को
आदिम गुफ़ाओं में सँजोते
और भी पगडंडियों से
उमगकर हम गले मिलते
तितलियों के संग उड़ते
कोंपलों के संग खिलते
देखते हम
कहाँ जाती है गिलहरी
कहाँ बसते रात तोते