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काश यह सन्दली शाम महक जाती/ विनय प्रजापति 'नज़र'
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रचना काल: 2004
काश यह सन्दली शाम महक जाती
सबा<ref>सुबह की ताज़ा हवा</ref> तेरी ख़ुशबू वाले ख़त लाती
तुझसे इक़रार का बहाना मिलता
तो शायद मेरी क़िस्मत सँवर जाती
दीप आरज़ू का जलता है दिल में
काश तू इश्क़ बनके मुझे बुलाती
दूरियाँ दिल का ज़ख़्म बनने लगीं हैं
ये काश नज़दीकियों में बदल जाती
शब्दार्थ
<references/>