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किंकर्त्तव्यविमूढ़ / कविता भट्ट

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अब जमने लगा-
आँखों में ही खारा समंदर।
गुमसुम से हैं होंठ;
मुझे पता है, मैं विलग हो रही हूँ।
शब्दों से और हाँ अर्थों से भी;
सम्भवतः शब्दों ने गरिमा खो दी;
और अर्थ तो शब्द से ही हैं।
क्या कहें इसे?
वितृष्णा या दुर्बलता?
सांसारिकता या आध्यात्मिकता?
या केवल निष्ठुर कालचक्र।
अथवा मेरी हठधर्मिता?
किंकर्त्तव्यविमूढ़ हूँ।