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किंशुक-कुसुम / मुकुटधर पांडेय

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किंशुक-कुसुम! देख शाखा पर फूला तुझे
मेरा मन आज यह फूला न समाता है
पूरे एक वर्ष पीछे आया फिर देखने में
इतने दिवस भला कहाँ तू बिताता है?
कौन-कौन देश घूम आया इस बीच में तू
हाल क्यों वहाँ का नहीं मुझको सुनाता है
भूल तो गया न मुझे जाके उस अन्चल में
क्या न उपहार कुछ मेरे लिए लाता है?
है क्या तुझे याद कभी ठीक इसी ठौर पर
तेरे साथ खेलने में प्रात मैं बिताता था
एक ओर ऊषा का अरुण-हास, एक ओर
आनन अरुण तब देख सुख पाता था
ठीक इसी भाँति वह आम खूब बौर कर
अपनी अपार छटा हमको दिखाता था
तुझको झुलाता कभी धीरे से, कभी तो रम्य
स्वागत में तेरे मैं मधुर गीत गाता था।
कभी किसी तरु ही को मान वनदेव मैं तो
श्रद्धायुक्त तेरी कुसुमांजलि चढ़ाता था
कभी तुझे महानदी-नीर में बिखेर कर
तेरी दिव्य आभा देख मोद उर लाता था
शिशुओं के हेतु कभी किंशुक-कुसुम! तुझे
यत्न से मैं तोड़-तोड़ साथ लिये जाता था
लाल पंखुड़ी के बाल-विहग बना के अहा
बाल उर उनका न हर्ष से समाता था

छाया बन बीच आज सरस बसन्त वही
मैं भी वही, और वही भूमि भी पवित्र है
बदला न तू भी पर देखने में आता नहीं
आज किस हेतु वह सुखद चरित्र है
झूल-झूल जाता मम मानस नयन बीच
विविध विनोदमय वह मोद-चित्र है
बात कल की थी और आज कुछ और ही है
विधि का विधान मित्र! ऐसा ही विचित्र है।

कहता तुझे था कभी किंशुक-कुसुम देख
जैसा तब रूप वैसी तुझमें न वास है
सरसिज-सुमन-स सौरभ में सौरभित
करती समीर यह तेरा उपहारस है
किन्तु है मलीन मम मानस-कुसुम आज
वह न सुगन्धमय सरस विकास है
देख-देख मेरी दशा आती है, दया क्या तुझे?
किंवा तेरे मुख पर यह व्यंग्य हास है?

किंशुक-कुसुम! जब विगत बसन्त होगा
मौन होगी कोकिल, प्रखर ग्रीष्म आवेगा
सूखेंगे कुटज-कचनार के सुमनहार
तरुण तरणि लोनी लतिका जलावेगा
होके वृन्तच्युत तब तू भी यह भूमि छोड़
मुझसे विदा हो दूर देश चला जावेगा
होगी भगवान से जो भेंट कहीं याद कर
करुण कथा तू मेरी उनको सुनावेगा।

-रूपाम्बरा, निर्झरिणी