कितना बड़ा स्वप्न देखा था? / लाखन सिंह भदौरिया
कितना बड़ा स्वप्न देखा था, कितने बड़े सत्य के दृग से।
इस जग की संकीर्ण परिधि में, समा सका कब सत्य तुम्हारा,
समाधिस्थ होकर शिवत्व में, जो तुमने नव स्वप्न निहारा,
उसका ही प्रतिदान, गरल के प्याले, पाये तुमने जग से।
कितना बड़ा स्वप्न देखा था, कितने बड़े सत्य के दृग से।
सीमाओं में बँध न सकी थी, क्रान्त-दर्शिनी दृष्टि तुम्हारी,
ओ भविष्य के दृष्टा तुमने ही हिरण्यमय किरण उतारी,
आज उसी आलोक रश्मि से, लोक-प्राण दिखते जगमग से।
कितना बड़ा स्वप्न देखा था, कितने बड़े सत्य के दृग से।
आदि सृष्टि का ज्ञान संजोकर, तममय वर्तमान से पहले,
मानवता का लिये सोमघट, तुम निकले विहान से पहले,
अन्ध दृष्टि पहचान न पायी, तुम आये आगम के मग से।
कितना बड़ा स्वप्न देखा था, कितने बड़े सत्य के दृग से।
कितनी बड़ी देन लाये तुम, कितना बड़ा अभाव खला था,
मानवता को मुक्ति दिलाने, पहला मुक्त पुरुष निकला था,
इस धरती का विस्तृत प्राँगण, जिसने नाप लिया दो डग से।
कितना बड़ा स्वप्न देखा था, कितने बड़े सत्य के दृग से।
कण-कण की सीमित क्षमतायें, कर न सकीं विराट का दर्शन,
चित्र स्वयं बन गया चितेरा, कौन करे चिति का चित्रांकन,
कैसे नाप सकेगा उसको, जग, बौने विचार के पग से।
कितना बड़ा स्वप्न देखा था, कितने बड़े सत्य के दृग से।