आँख जो
आकाश के आरपार निहारती है
सम्पूर्ण सृष्टि को
सत् का असत् और असत् का सत्
दोनों चुप हैं
मौन है वायु में निहित प्राण
समूची पृथ्वी अपने पगों से विरच
अदृष्ट दृष्ट वैश्नावर
यही कहीं डिसोल्व होता हुआ
कालखंड के बीच से झरता हुआ समय प्रवाह
अभी और कितनी देर
कितनी देर और?