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कितनी पीड़ा से बोझिल है मेरा ये मन / अमरेन्द्र

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कितनी पीड़ा से बोझिल है मेरा ये मन
किस जगह छोड़ आऊँ मैं इसकी जलन !

अनकही बात, जिसको न तुम कह सकी
कह रहे हैं, तुम्हारे ये बोझिल नयन।

क्या कहूँ मैं कि हर बार तुम ही लगी
एक अनदेखी, अनचिन्ही, भटकी किरन।

देह रह-रह के लेती है अँगड़ाइयाँ
गुदगुदी बन गई है तुम्हारी छुवन।

यूँ घृणा से न देखो मेरे प्यार को
प्यार होता है सबके लिए आचमन।

इक नजर ही उठाकर तुम्हें देखा था
कह रहें है सभी मुझको है बदचलन।

भूल होती रही तो किसे दोष दूँ
कुछ तुम्हारा भी था, कुछ तो मेरा भी मन।

तुम न आई, न आई, न आई कभी
दर्द का यूँ ही बढ़ता रहा आयतन।