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कितने उजले दिन बचे कितनी हसीं रातें बचीं / नूर मुहम्मद `नूर'

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कितने उजले दिन बचे कितनी हसीं रातें बचीं
जाने कितनी और लफ्ज़ों से मुलाक़ातें बचीं

फ़िक्रो-फ़न शेरो-सुखन से भीग जाना सुबहो-शाम
जानें कितनी और इस मौसम की बरसातें बचीं

कब ज़बाँ ख़ामोश आँखें बंद हो जाएँ कि आ
आ कि मिल-जुल कर तो बतिया लें हैं जो बातें बचीं

बदक़लामी, नफ़रतें औ पैंतरे चालाकियाँ
क्या यही अब लेने देने को हैं सौंग़ातें बचीं

हर कोई यह जानता है क्यों उजाले हैं उदास
इन अँधेरों की अभी भी ‘नूर’ जी , घातें बचीं

शब्दार्थ
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