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कितने कोमल कुसुम नवल / सुमित्रानंदन पंत
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कितने कोमल कुसुम नवल
कुम्हलाते नित्य धरा पर झर झर,
यह नभ अब तक सुन प्रिय बालक,
मिटा चुका कितने मुख सुंदर!
मान न कर चंचल यौवन पर
यह मदिरा का बुद्बुद अस्थिर,
सरिता का जल, जीवन के पल
लौट नहीं आते रे फिर फिर!