किताब खोले कभी यूँ ही सोचता हूँ मैं / विनोद तिवारी


किताब खोले कभी यूँ ही सोचता हूँ मैं
कि इसमें आप हैं मज़मून हाशिया हूँ मैं

निगाह आपकी ऊँचाइयों पे ठहरी थी
सड़क किनारे खड़ा देखता रहा हूँ मैं

किसी की याद ने जब भी मुझे पुकारा है
स्वयं से दूर बहुत दूर हो गया हूँ मैं

हवा मिले न मुझे वक़्त ने ये साज़िश की
ढँका हूँ राख से अंगार अनबुझा हूँ मैं

जिन्हें मिला है बड़प्पन महज़ विरासत में
मुझे यक़ीन है उनसे बहुत बड़ा हूँ मैं

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