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किताब गुमराह कर रही है / शहराम सर्मदी

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किताब गुमराह कर रही है
प इक यक़ीं है कि
इतनी गुमराहियों के पीछे
कोई तो इक राह होगी
जो मंज़िलों से नहीं मिलेगी

सफ़र पे जो गामज़न रखेगी
ये शिर्क-ए-कोहना
सफ़र की वहदानियत को मजरूह कर रहा है

कहाँ की मंज़िल
कहाँ है मंज़िल
ये शिर्क के हैं सराब सारे
हम आप हैं महव-ए-ख़्वाब सारे

ये शिर्क अफ़यून बन के ख़ूँ में घुला हुआ है
हुजूम-ए-मंज़िल में अब सफ़र की शनाख़्त
ख़ुद एक मसअला है
सफ़र ख़ला है
ख़ला में जो कुछ भी हो नतीजा वही ख़ला है
यही ख़ला है !

ख़ला को मंज़िल के नक़्श-ए-पा से कसीफ़ करने का
अहमक़ाना ख़याल छोड़ो
किताब गुमराह कर रही है !

सफ़र पे निकलो
प मंज़िलों के मुहीब सायों की ज़द से
ख़ुद को बचाए रक्खो
सफ़र पे पाँव जमाए रक्खो

ये सब वजूद ओ अदम के क़िस्से
सफ़र में तख़्लीक़ हो रहे हैं
अज़ल नहीं है अबद नहीं है
ये इक सफ़र है कि हद नहीं है

तो कैसे ना-हद में
मंज़िलों की हदें बनाएँ
ख़ला ख़ला ख़लाएँ
इसी वजूद-ए-ख़ला में इंसाँ
वजूद-ए-इंसान शिर्क-ए-आज़म
ये एक नुक्ता है इस्म-ए-आज़म
किस इस्म-ए-आज़म की जुस्तुजू में
किताब तसनीफ़ हो रही है
किताब तालीफ़ हो रही है

वजूद-ए-इंसाँ
किताब तसनीफ़ कर रहा है
किताब तालीफ़ कर रहा है
किताब गुमराह कर रही है