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किनारा-दर-किनारा मुस्तक़िल मंजधार है यूँ भी / रियाज़ लतीफ़
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किनारा-दर-किनारा मुस्तक़िल मंजधार है यूँ भी
मिरे पानी में जो कुछ है वो यूँ पुर-असरार है यूँ भी
बहा जाता हूँ अक्सर दूर लम्हों के हिसारों से
मिरे ठहराओ के आग़ोश में रफ़्तार है यूँ भी
कहाँ ख़लियों के वीरानों में उस को ढूँडने जाएँ
ज़मानों का सिरा मेरे सिरे से पार है यूँ भी
यहाँ से यूँ भी इक तजरीद की सरहद उभरती है
और अपने दरमियाँ अन्फ़ास की दीवार है यूँ भी
हमारे गुम्बदों की गूँज का चेहरा नहीं तो क्या
जो तुझ से कह नहीं सकते पस-ए-इज़हार है यूँ भी
रहा क्या फ़र्क़ अंदर और बाहर में ‘रियाज़’ आख़िर
जो मुझ में खो चुका है मुझ से वो सब पार है यूँ भी