भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किनारे / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
कोई नदी नहीं थी एक जर्जर पुल था
उस रात वहां नीचे बह रहा था अन्धकार
और एक दोस्त था कुछ कहता हुआ लगातार
कि बस एक नदी बची है हमारे शहर में
यहीं आ जाता हूँ किसी किसी रात
और चुपचाप देखता रहता हूँ इसका धीमे धीमे बहना
बरसात में इसका पानी मटमैला हो जाता है
अभी इतने बीते हुए समय
और इतनी बीती हुई दूरियों की सड़कें पार करके भी
आवाज़ में फंस रही है रेत यह कहने में
कि नदी की याद के किनारे बैठे थे
नदी कोई नहीं थी एक जर्जर पुल था
नीचे बह रहा था अन्धकार।