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किन रिवाज़ों के शहर में आ गए बसने लगे / विनय कुमार
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किन रिवाज़ों के शहर में आ गए बसने लगे।
तुम हमे डंसने लगे हम भी तुम्हे डंसने लगे।
कुर्बतों में इश्क की, कुहरा घना होने लगा
हम तुम्हारे तुम हमारे जाल में फ़ँसने लगे।
काँच भी टूटा तुम्हारा हाथ भी ज़ख्मी हुआ
क्यों कसौटी पर किसी के काँच को कसने लगे।
चल पडा मैं भी कि जब मुझको ठहरते देखकर
हमसफ़र के ज़ख्म बच्चों की तरह हँसने लगे।
यार उस इंसान की तकलीफ़ की शिद्दत न पूछ
चल रहा हो पाँव के बल और सर धँसने लगे।