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किरण / महेन्द्र भटनागर

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उतरी रही प्रमोद से
अबोध चंद्र की किरण !

समस्त सृष्टि सुप्त देखकर,
रजत अरोक व्योम-मार्ग पर
समेट अंग-अंग
वेगवान रख रही चरण !

विमुक्त खूँदती रही निडर
हरेक गाँव, घर, गली, नगर,
न शांत रह सकी ज़रा
न कर सकी निशा-शयन !