किरनों ने दिनभर थक-फिरके ढूँढ़े घर-घर द्वार नए / बलजीत सिंह मुन्तज़िर
किरनों ने दिनभर थक-फिरके ढूँढ़े घर-घर द्वार नए ।
शाम ढले सूरज को सौंपे तब कुछ बन्दनवार नए ।
कलियाँ चटकीं, भँवरे लिपटे, बर्ग़े-नौ शाख़ों पर चहके,
फ़स्ले गुल से गुलशन में हैं कितने तो व्यापार नए ।
बारिश के मौसम में प्यासी धरती ने सिंगार fकया,
बून्दों के हाथों से पहने हरियाली के हार नए ।
तूफ़ानों की आहट भर से दरिया का दिल बैठ गया,
टूटी क़श्ती ने भी झाड़े इस डर से पतवार नए ।
यादों की वादी से हो कर दर्दे कुहन जब गुज़रेगा,
सपनों की राहें रोकेंगे ग़म के fफर कोहसार नए ।
सदियों से बेदार हैं रातें, बरसों से बेज़ार हैं fदन,
fफर क़िस्मत में लाई क़ुदरत कुछ उजले अन्धियार नए ।
बे-दिल तूने दर्दो-ग़म के फूल दिए वो सूख गए,
अबके बार मिलो तो देना ख़्वाबों के कुछ ख़ार नए ।
झूठे लोग, फ़रेबी बातें, नफ़रत के सामान कई,
इस दुनिया से आजिज़ आए ढूँढ़ ए दिल संसार नए ।
महानगर का इंसाँ तो बस इश्क़ बुलन्दी से करता,
गढ़ता है ज़रख़ेज़ ज़मीं पर बड़े-बड़े मीनार नए ।
गोली, पिस्टल, तोप, मिसाइल, परमाणु बम, मोर्टारें
रोज़ ईजाद अब करता इंसाँ दहशत के हथियार नए।।