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किसान / अच्युतानंद मिश्र

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उसके हाथ में अब कुदाल नहीं रही
उसके बीज सड़ चुके हैं
खेत उसके पिता ने ही बेच डाला था
उसके माथे पर पगड़ी भी नहीं रही
हाँ, कुछ दिन पहले तक
उसके घर में हल का फाल और मूठ
हुआ करता था

उसके घर में जो
नमक की आख़िरी डली बची है
वह इसी हल की बदौलत है
उसके सफ़ेद कुर्ते को
उतना ही सफ़ेद कह सकते हैं
जितना की उसके घर को घर
उसके पेशे को किसानी
उसके देश को किसानो का देश

नींद में अक्सर उसके पिता
दादा के बखार की बात करते
बखार माने
पूछता है उसका बेटा
जो दस रुपये रोज़ पर खटता है
नंदू चाचा की साइकिल की दुकान पर

दरकती हुए ज़मीन के
सूखे पपड़ों के भीतर से अन्न
के दाने निकालने का हुनर
नहीं सीख पाएगा वह

यह उन दिनों की बात है
जब भाषा इतनी बंजर नहीं हुई थी
दुनिया की हर भाषा में वह
अपने पेशे के साथ जीवित था
तब शायद डी०डी०टी० का चलन
भाषा में और जीवन में
इतना आम नहीं हुआ था

वे जो विशाल पंडाल के बीच
भव्य-समारोह में
मना रहे हैं पृथ्वी-दिवस
वे जो बचा रहे हैं बाघ को
और काले हिरन को
क्या वे एक दिन बचाएँगे किसान को
क्या उनके लिए भी यूँ ही होंगे सम्मलेन

कई सदी बाद
धरती के भीतर से
निकलेगा एक माथा
बताया जाएगा
देखो यह किसान का माथा है
सूंघों इसे
इसमें अब तक बची है
फ़सल की गंध
यह मिट्टी के
भीतर से खिंच लेता था जीवन-रस

डायनासोर की तरह
नष्ट नहीं हुई उनकी प्रजाति
उन्हें एक-एक कर
धीरे-धीरे नष्ट किया गया