भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किसी के फ़ैज़-ए-कुर्ब से हयात अब सँवर गई / 'उनवान' चिश्ती
Kavita Kosh से
किसी के फ़ैज़-ए-कुर्ब से हयात अब सँवर गई
नफ़स-नफ़स महक उठा नज़र नज़र निखर गई
निगाह-ए-नाज़ जब उठी अजीब काम कर गई
जो रंग-ए-रूख़ उड़ा दिया तो दिल में रंग भर गई
मेरी समझ में आ गया हर एक राज़-ए-ज़िंदगी
जो दिल पे चोट पड़ गई तो दूर तक नज़र गई
अब आस टूट कर मुझे सुकूँ नसीब हो गया
जो शाम-ए-इंतिजार थी वो शाम तो गुज़र गई
कली दिल-ए-तबाह की खिली न ‘चिश्ती’-ए-हज़ीं
ख़िंजाँ भी आ के जा चुकी बहार भी गुज़र गई