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किसी कोने में सिमटा सा पड़ा हूँ / अजय अज्ञात
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किसी कोने में सिमटा-सा पड़ा हूँ
मैं ख़ुद अपने ही घर में लापता हूँ
मुझे इल्ज़ाम देता है ज़माना
कि मैं ख़ामोश रह कर चीख़ता हूँ
वफ़ा के गीत का उनवान हूँ मैं
मुहब्बत की ग़ज़ल का क़ाफ़िया हूँ
ज़रूरत और अना में ठन गयी है
नदी के सामने प्यासा खड़ा हूँ
रवानी आ गयी क़दमों में माना
मगर घुटनों के बल मैं चला हूँ
मुझे मत रोक अब ऐ ज़िंदगानी
बड़ी मुश्किल से मैं तुझ से खुला हूँ
बिखर जाऊँगा मैं इक दिन उन्हीं में
‘अजय’ जिन पाँच तत्वों से बना हूँ