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किसी को ज़िंदगी में जानना आसाँ नहीं होता / रमेश तैलंग
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किसी को ज़िंदगी में जानना आसाँ नहीं होता
नज़र आता है जो जैसा कभी वैसा नहीं होता
बड़ी रोशन निगाहें भी यहाँ खा जाती हैं धोखा
सुनहरी देह वाला सिक्का हर सोना नहीं होता
उजाले की जहाँ मौजूदगी थोड़ी-सी होती है
वहाँ साया भी अपने आप में तन्हा नहीं होता
हजारों जानवर सोते हैं एक इंसान के भीतर
कोई भी जाग जाए तो वो फिर इंसाँ नहीं होता
कई शक्लों में आती है मुसीबत इम्तहाँ लेने
बरसती है जहाँ रहमत, चमन वीराँ नहीं होता
ज़रा सोचो ये दुनिया कितनी बदसूरत नज़र आती
अगर बच्चों की आँखों में कोई सपना नहीं होता