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किसी जन्नत से जाकर हुस्न की दौलत उठा लाये / डी. एम. मिश्र

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किसी जन्नत से जाकर हुस्न की दौलत उठा लाये
हमारे गाँव से क्यों सादगी लेकिन चुरा लाये।

बताओ चार पैसे के सिवा हमको मिला ही क्या
मगर सब पूछते हैं हम शहर से क्या कमा लाये।

हज़ारों बार इस बाज़ार में बिकना पड़ा फिर भी
खुशी इस बात की है हम ज़मीर अपना बचा लाये।

तुम्हारी थाल पूजा की करे स्वीकार क्यों ईश्वर
ये सब बाज़ार की चीज़ें हैं, अपनी चीज़ क्या लाये।

इसे नादानियाँ समझें कि क़िस्मत का लिखा मानें
समन्दर में तो मोती थे मगर पत्थर उठा लाये।

इसी उम्मीद पर तो टूटती है नींद लोगों की
नयी तारीख़ आये और वो सूरज नया लाये।

तुम्हारे हुस्न के आगे हज़ारों चाँद फीके हैं
तुम्हारे हुस्न को ही देखकर हम आइना लाये।