भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किसी ज़ईफ़ शजर की उदास छाया है / ज्ञान प्रकाश विवेक
Kavita Kosh से
किसी ज़ईफ़ शहर की उदास छाया है
वो अपने गाँव से जिसको उठाके लाया है
हरेक मोड़ पे लगता है टोल-टैक्स यहाँ
कि इस शहर को किसी सेठ ने बसाया है
मुझे ये इल्म नहीं था कि रो पड़ेगा वो
जिसे हँसाने की कोशिश में गदगुदाया है
भटकता फिरता रहा राम भी तो जंगल में
कि ज़िदगी में यहाँ किसने चैन पाया है
वो एक अब्र जो रोता रहा मेरी छत पे
लगा कि कि दर्द का उत्सव मनाने आया है
ये बात मेरे पिता को ज़रा ख़राब लगी
कि मैंने घर से अलग-अलग घर बनाया है.