किसी ने दरवाज़ा खटखटाया
फिर खटखटाया
नाम लेकर पुकारा मेरा
मैं सुनता रहा आवाज़
लेकिन उठा नहीं
मुझे आश्चर्य हुआ
कोई मुझे जानता है
मेरे नाम से
मैंने आइने में
अपने चेहरे की
एक एक रेखा
ध्यान से देखी ,
मैं कुछ हूँ
यह सोचता रहा मैं
शायद , पहली बार होंठ खिल उठे थे
मेरा सारा ज़िस्म
जो कभी
सिकुड़कर
नम्बरों में बदल गया था
आज़ दिखा है
समूचा का समूचा।
रचनाकाल : 27 मार्च 1989