किसी ने रक़्स की बज़्म सजाई / सुरेश चन्द्र शौक़
किसी ने रक़्स की बज़्म सजाई किसी ने गाया गीत मिलन का
हमको अश्क़ और आहें देकर बीत गया मौसम सावन का
ध्यान के घोर अँधेरे में यूँ दीप जला उस सीम —बदन का
बादल छ्ट जाने पर जैसे दिलकश मंज़र नीलगगन का
खेत, शजर, गुल बूटे महके, पग—पग पर हरियाली लहके
लफ़्ज़ों में क्या रूप बयाँ हो कुदरत के इस पैराहन का
भीग तो जाती होंगी तिरी भी आँखे भीगी—भीगी रुत में
याद तो आता होगा तुझे भी झूला हरे—भरे आँगन का
राह तिरी तकती है अब तक नैन बिछाये सोंधी मिट्टी
याद किया करता है तुझको हर पता हर फूल चमन का
कौन जो तुझ बिन धीर बँधाये, कौन अश्कों की आग बुझाये
कौन कहे दो बोल प्यार के कौन सुने दुखड़ा इस मन का
पीपल, बड़, तालाब ,न झूले,गबरू शोख़ न अल्हड़ नारें
‘शौक़’! कोई क्या लुत्फ़ उठाये ऐसी बस्ती के सावन का
रक़्स=नृत्य; सीम—बदन=चांदी जैसे बदन वाला;पैराहन=पोशाक