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किसी बड़े अवसर का इंतज़ार / बालस्वरूप राही

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अपने तो जीवन में कम ही अवसर आये
वे सब भी हम ने तो व्यर्थ ही गंवाए
और उन्हें खो खो कर ऐसे अभिमान किया
जैसे हम ने कोई बहुत बड़ा दान किया।

पा कर अनुकूल हवा
तिनके तक छत पर चढ़ जाते हैं
हम जैसे मूर्ख कहां होंगे जो
छत के नज़दीक पहुंच
आंगन का यशोगान गाते हैं
अपने ही हाथों से अपने ही सपनों की
धज्जियां उड़ाते हैं
फिर यों इतराते हैं
जैसे जो कुछ किया महान किया

करते ही रह गये
किसी बड़े और सही अवसर का इंतज़ार
भूले हम कितना कम होता है
अपने हालात पर अपना ही अख्तियार
कोई क्या करे कि जब
राह रोक ले आ कर संस्कार

कविता के लिए कहीं कोई अवकाश नहीं
ख़ुशबू तक सिंथेटिक मिल जाती।
और मज़ा तो यह है फूल खुद निराश नहीं
हम ने हर मुश्किल को स्वाभाविक मान लिया
इसी तरह जी पाना थोड़ा आसान किया
सामंती तेवर है वक़्त के
चापलूस लोगों से सदा घिरा रहता है
उस को क्या पता कहां कौन नदी सूख रही
कौन सा कगार कहां ढहता है

यह केवल उन का ही
उन का ही दौर है
ऊंचे ही ऊंचे जो उठे चले जाते हैं
बेदेखे
पांव तले सीढ़ी ही है या कुछ और है

संवेदना पानी पर तैर रहा दीपक है
तब तक बह सकता है
धीमा धीमा प्रवाह जब तक है

हम जवान हो कर बच्चों की तरह रहे खेलते
इसीलिए रहे सदा असफलता झेलते
और सफल लोगों ने घेर हमें
काफी गुणगान किया
मौके-बेमौके सम्मान किया

लेकिन अब क्या करें
सही नहीं जाती अब और घुटन
कितना ही सब्र करें, समझाएं अपने को
आखिर मन तो है मन
भागती हुई पागल भीड़ों में वैसे भी
आहिस्ता चलना तो रौंद दिया जाना है
कुछ भी हो, स्वयं को बचाना है
यों पीछे रह हम ने किस पर अहसान किया