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किसी भी ऋतु में / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
फिर नहीं आए
घूमते रहे देस-दिसावर - कहीं सत्तू, कहीं पानी
तो कहीं दिनभर उपास
कौआ भी नहीं आया
पिछले अकाल में भस्म हुआ लोकगीतों का सारा सोना
एक मुट्ठी गुलाल आँचल में पिछली होली का
और कुछ दिए पूजाघर में अमावस में बचा
टूट गई चप्पल, तलवे के नीचे तिलचट्टा रसोईघर में
फूट गया तवा, रोटी फेंक देती है धुआँ
टिकस का नहीं जुट रहा पैसा या नजरों को
बाँध लिया चकमक शहर ने
हर रात पुकारता है उन्हें बरसते अँधेरे का झमझम
वे आएँगे, शेष हैं अभी बारिश ठंड और वो
गरमी पके आमों से मह-मह