किस्सा ऊधम सिंह / रागनी 11 / रणवीर सिंह दहिया
वार्ताः 31 जुलाई 1940 को ऊधम सिंह को फांसी दे दी जाती है खबर उसके शहर सुनाम पहुंचती है। एक बुजुर्ग ऊधम सिंह को बहुत चाहता था। अनाथ घर में भी उसकी सम्भाल किया करता था। वह बहुत दुखी होता है और क्या कहता है भलाः
बेटा उधम सिंह चला गया तो के सै मेरे लाल भतेरे॥
उस वीर बहादुर बरगे देश मैं न्यूंए ठोकैंगे ताल कमेरे॥
उसका कसूर था इतना देश प्रेम की लौ लगाई थी
देश नै आजाद करावां मिलकै नै अलाख जगाई थी
बढ़ता गया आगै बेटा आजादी की लड़ी लड़ाई थी
अंग्रेजां नै कदे बी ना कोए उसकी बात सुहाई थी
पूत पालनै मैं पिछणै सै यो करगे ख्याल बडेरे॥
मैं न्यों बोल्या उसतै अपणा बख्त बरबाद करै सै
उमर सै खेलण खावण की राजनीति की बात करै सै
न्यों बोल्या ज्यांए करकै अंग्रेज हमपै राज करै सै
बिना शान के जीणा चाचा मनमैं दिन रात फिरै सै
सारी उम्र हम करां कमाई क्यों लूटैं माल लुटेरे॥
गैर कैंडै नहीं चलूंगा बोल्या मेरा विश्वास करिये
आर्शीवाद देदे अपणा ना मनै आज निराश करिये
भारत मां की आजादी की दिल तै ख्यास करिये
पलहम परिक्षा लेले पाछै फेल और पास करिये
देश आजाद कराणा लाजमी ये ठारे ढाल पथेरे॥
मैं सूं भारत देश का सच्चा ताबेदार सिपाही
गोरयां नै वैशाखी आले दिन ढाई घणी तबाही
म्हारी बहू बेटी नै तकते होती ना जमा समाई
रणबीर मार गोली छाती मैं उसनै कसम पुगाई
फसल असली थे भारत की वे ना थे घास पटेरे॥