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किस्से नहीं हैं ये किसी बिरहन की पीर के / जहीर कुरैशी

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किस्से नहीं हैं ये किसी बिरहन की पीर के
ये शे’र हैं अँधेरों से लड़ते जहीर के

मैं आम आदमी हूँ तुम्हारा ही आदमी
तुम,काश, देख पाते मेरे दिल को चीर के

सब जानते हैं जिसको सियासत के नाम से
हम भी कहीं निशाने हैं उस खास तीर के

चिन्तन ने कोई गीत लिखा या गज़ल कही
जन्मे हैं अपने आप ही दोहे कबीर के

हम आत्मा से मिलने को व्याकुल रहे मगर
बाधा बने हुए हैं ये रिश्ते शरीर के